महंगाई, सरकारी भ्रष्टाचार, त्वरित न्याय, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य व मकान का हल क्या है?
जिस देश की 80 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में रहती हो और आज भी बुनियादी आवश्यकताओं भोजन, पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और मकान के लिए तरस रही हो। देश के लाखों गांव ऐसे हों, जहां पीने का पानी उपलब्ध न हो। जहां की महिलाओं को मीलों दूर से पानी लाना पड़ता हो। गांव से शहर के लिए मात्र एक बस, खबर की तरह बिजली का आना हो, सरकारी रोजगार के नाम पर मात्र मनरेगा भ्रष्टाचार, घूसखोरी, दबंगई, गैर जिम्मेदार प्रशासन से जनता दुखी हो। अंग्रेजों के बनाए कानूनों के आधार पर न्याय की आस में परिवारों की पीढिय़ां खप जाती हों। प्रशासन के आला अधिकारियों की सोच आज भी सामंतवादी हो और जिन्हें जनता की परेशानियों से कोई लेना-देना न हो। सरकारें विकास के नाम पर अनुदान के रूप भीख बांट रही हों। पारिवारिक दायित्वों और संस्कारों का सरकारीकरण (लाड़ली लक्ष्मी, कन्यादान, वृद्ध तीर्थ यात्रा, जापे के लड्डू) कर दिया गया हो। औद्योगीकरण के नाम पर खेती की जमीन का अधिग्रहण करके उस बड़े औद्योगिक घरानों और रीयल इस्टेट कंपनियों को बेचा जा रहा हो। देश के कई क्षेत्रों में रेलवे लाइनों का अभाव हो। ऐसे देश के लोगों को विकास की अति विकसित देशों की उच्च तकनीक के सपने व विकास को दिखाना, नींद में सपने की तरह है, जिसका हकीकत से कोई लेना-देना नहीं है। न ही इस तरह के विकास की जरूरत है और ऐसा विकास करने के लिए न ही धन है, न ही तकनीक, न ही प्रशासकीय व राजनीतिक क्षमता व जनप्रतिनिधियों में ज्ञान?
इंदौर। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 3 जनवरी को मुंबई में 102वीं विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन करते हुए कहा कि डिजिटल कनेक्टिविटी भी एक मौलिक अधिकार बन जाना चाहिए। गांवों, कस्बों, तहसीलों में रहने वाले 100 करोड़ भारतीयों, जिनकी वार्षिक आय मात्र 25 से 30 हजार रुपए हो, जिन्हें
डिजिटल साक्षरता तो दूर की बात है, शैक्षणिक साक्षरता का भी ज्ञान नगण्य हो, कानूनों का पता न हो, उनके लिए पब्लिक-प्रायवेट पार्टनरशिप के तहत निजीकरण व विदेशी निवेश से विकास करवाकर दी जाने वाली पेड-अप सुविधाएं, फिर चाहे वह सड़क के टोल टैक्स हों या प्लेटफॉर्म टिकट, मोबाइल पर प्राप्त होने वाली सुविधाओं के लिए रकम अदा करना हो, के अलावा जहां राज्यों के अंदरुनी व दूरदराज इलाकों में जनता के लिए ट्रेनों की संख्या बढ़ाने और उनका टाइम टेबल सुधारने की बजाय 300 से 500 किलोमीटर प्रति घंटा की बुलेट ट्रेन की बात देश में की जाए। देश के हजारों तहसील मुख्यालयों और कस्बों को उन्नत करने की बजाय नए स्मार्ट शहर बनाने की कल्पना को साकार करने की कवायद की जाए? तो आखिर यह कैसा विकास है और किसके लिए किया जा रहा है? लोगों तक डिजीटल कनेक्टिविटी पहुंचाने से ज्यादा जरूरी है कि उनके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और आवास की चिंता की जाए। जब हर युवा को रोजगार, परिवार को रहने के लिए घर, पेटभर भोजन, बीमार पडऩे पर सुलभ इलाज, बच्चों के लिए सस्ती और स्तरीय शिक्षा उपलब्ध होगी, तभी सही मायनों में देश की तरक्की होगी। केवल विदेशी तकनीक व ज्ञान की चमक-दमक और दिखावे से देश की जनता का भला होने वाला नहीं है।
जमीनें सौंपी निजी कंपनियों को
सरकारी नियंत्रण की जमीनों का सरकार ने ही व्यवसायीकरण कर दिया है। जहां पर बड़ी-बड़ी कंपनियों का पैसा लगाकर महंगी टाउनशिप विकसित की जा रही हैं। अब आपको एक अदद घर खरीदने के लिए कभी न खत्म होने वाले कर्ज पर आधारित अत्याधिक महंगे (100 रुपए वर्गफीट की जमीन का भाव 3000 से 50000 रुपए वर्गफीट) मकान खरीदने के लिए , कॉलोनाइजर, सिटी डेवलपर्स पर निर्भर होना पड़ता है। किसानों की जमीनें भी अधिगृहित कर कंपनियों को सौंप दी हैं, इससे कृषि का क्षेत्र घट रहा है और इस पर निर्भर एक बड़े वर्ग के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा होता जा रहा है।
सरकार के पास नहीं बची नौकरियां
लोगों को रोजगार देने के लिए सरकार के पास कोई व्यवस्था नहीं बची है। भारत के 45 करोड़ से अधिक मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान के साथ ही उनकी अन्य बुनियादी जरूरतों (शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, दूरसंचार, बैंक) की सभी सेवाओं पर मल्टीनेशनल या भारतीय मल्टीनेशनल कंपनियों का बाजार हावी हो गया है। पहले जहां हम इन सारी जरूरतों के लिए सरकार पर निर्भर थे, वहीं अब पूर्ण रूप से उस बाजार पर निर्भर हैं, जिसकी सोच मल्टीनेशनल कंपनियों की सोच से तय होती है और जिसका उद्देश्य केवल मुनाफा कमाना है। हर नागरिक केवल उपभोक्ता है। जो सरकार अपने नागरिकों को रोजगार नहीं दे सकती, वह उनकी रोटी, कपड़ा और मकान के साथ ही अन्य बुनियादी आवश्यकताओं को कैसे पूरा कर सकती है। वैश्वीकरण के इस दौर में सरकार मे पूरी तरह असहाय हो चुकी है और लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में पूरी तरह असमर्थ है। यदि हम आजादी के बाद से अब तक देश की तकदीर तय करने वाले हुक्मरानों की नीयत और उनकी नीतियों को देखें, तो पाएंगे कि तब और अब में जमीन-आसमान का अंतर आ चुका है।
बदलते प्रधानमंत्रियों की देश के विकास पर सोच
आजादी के बाद आधुनिक भारत के स्वप्नदृष्टा जवाहरलाल नेहरू के पास जनता की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने की दिशा में स्पष्ट सोच थी। उनकी यह सोच समाजवाद की अवधारणा पर आधारित थी। उन्होंने आधुनिक तकनीक को मानव श्रम के साथ जोड़कर देश को विकास के रास्ते पर ले जाने का सपना देखा। उन्होंने देश की जनता को रोजगार और उसके जरिये बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए देश को औद्योगिक रूप से संपन्न करने के भरसक प्रयत्न किए। उस दौर में खुद सरकार ने कई बड़े कारखाने स्थापित किए जिनके जरिये लाखों लोगों को रोजगार मिला और उन क्षेत्रों का विकास हुआ। इनमें शामिल थे स्टील प्लांट, सीमेंट के कारखाने और कपड़ा मिल जैसे उद्योग जिनसे देश में वास्तव में उत्पादन और विकास होता था। भाखड़ा नांगल जैसा विशाल बांध भी नेहरू युग की ही देन है, जिसके जरिये सिंचाई और बिजली उत्पादन के क्षेत्र में क्रांति आई। इसके बाद इंदिरा युग का आगमन हुआ। इंदिरा गांधी ने जनता के हित मेें कई कठोर निर्णय लिए। उन्होंने लोकतांत्रिक भारत में रह रहे राजे-रजवाड़ों के प्रिवीपर्स को बंद कराया। बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और भारत को शेष विश्व के समकक्ष खड़ा करने के लिए पोखरन में परमाणु विस्फोट कर अपनी मजबूत इच्छाशक्ति व बुलंद इरादों को जाहिर किया। उन्होंने गरीबी हटाओ का नारा दिया और देश को हरित क्रांति और श्वेत क्रांति के जरिये खुशहाल बनाने की कोशिश की। राजीव गांधी देश का प्रधानमंत्री बनना देश में टर्निंग पॉइंट था। उन्होंने तकनीक के विकास पर जोर दिया और देश में संचार क्रांति आई। देशभर में एसटीडी-पीसीओ खुले। आज हम कम्प्यूटर और इंटरनेट का जो सुख ले रहे हैं, यह राजीव गांधी की तकनीकी सोच का ही परिणाम है। राजीव गांधी ने देश में पंचायती राज को मजबूत बनाने में महती योगदान दिया। इसके बाद वी.पी. सिंह ने आरक्षण के जरिये दलित वर्ग के लोगों को सक्षम बनाने की दिशा में काम किया। पी.वी. नरसिंहराव का कार्यकाल पूरी तरह उदारीकरण के दौर से प्रभावित रहा। उनके कार्यकाल में देश के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को निजी हाथों में सौंपने की शुरूआत हुई और देश के नौरत्नों में गिने जाने वाले सार्वजनिक उपक्रमों की हिस्सेदारी निजी कंपनियों को बेच दी गई। यह क्रम बाद में भी जारी रहा।
अटल बिहारी वाजपेयी ने देश में सड़कों का जाल बिछाने के लिए प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना का सूत्रपात किया
वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का फोकस ‘गुड गवर्नेंसÓ और ‘मेक इन इंडियाÓ पर है। वे देश को ‘डिजिटल इंडियाÓ बनाने के साथ ही ‘स्मार्ट सिटीÓ और ‘बुलेट ट्रेनÓ की बात कर रहे हैं, वह भी विदेशी तकनीक और विदेशी मानसिकता वाली। वे उन लोगों से और उन लोगों की बात करते हैं जो फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप पर सक्रिय हैं। आज के दौर में उन करोड़ों लोगों की ओर किसी का कोई ध्यान नहीं है जो बेरोजगार और बेघर हैं। जिनके पास पढऩे-लिखने और जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन नहीं है। सरकार के पास उनके लिए न तो कोई सोच है और न कोई नीति। गांव में डामरविहीन सड़क पर बैलगाड़ी चलाने वाले ग्रामीण या शहर में जिसके लिए साइकिल आज भी सपना हो, ऐसे व्यक्ति के लिए स्मार्ट सिटी और बुलेट ट्रेन जरूरी है?
आजादी के बाद सरकार ने निभाया दायित्व
जब देश आजाद हुआ, तो हमारे राष्ट्र निर्माताओं के दिलो-दिमाग में एक सुंदर सपना था कि यह राष्ट्र सर्वसुविधा संपन्न उन्नत राष्ट्र बने। हमारे नीति निर्धारकों व लोकतांत्रिक सरकार ने देश के बुनियादी आर्थिक व सामाजिक विकास के लिए सरकारी तंत्र का ढांचा विकसित किया। उद्योग-धंधों, कल-कारखानों, बुनियादी जरूरतों (रोटी, कपड़ा और मकान) आदि पर सरकारी नियंत्रण था। स्कूलों, कॉलेजों व विश्वविद्यालयों की स्थापना की। स्वास्थ्य के लिए सरकारी अस्पतालों, डिस्पेंसरीज का निर्माण कराया। कहने का आशय है स्वतंत्रता के बाद सरकार ने अपनी भूमिका का पूरी तरह से निर्वहन किया था। इन्हीं कारणों से सरकारी नौकरियों की उपलब्धता बहुत थी। देश की आबादी का एक बहुत बड़ा वर्ग सरकार द्वारा प्रदत्त नौकरियों से अपनी बुनियादी जरूरतें- रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य और शिक्षा पूरी कर रहा था। दूसरा वर्ग कृषि आधारित व जातिगत तकनीकी उद्यम से अपनी व परिवार की यही जरूरतें पूरी कर रहा था।
सब कुछ बाजार भरोसे
1992 में उदारीकरण के दौर की शुरुआत हुई और दुनिया के लिए भारत एक बड़े बाजार के रूप में खोल दिया गया। विकसित देशों की कंपनियां भारत में अपने नवीनतम उत्पाद बेचने आ गईं। इन कंपनियों ने हमारी सुख-सुविधाओं के सामान (फ्रिज, टीवी, टू-व्हीलर, कार) लाकर हमें विश्व के नागरिकों के समकक्ष खड़े होने का मौका दिया। इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने हमारे सरकारी रुग्ण तंत्र को तितर-बितर करना शुरू कर दिया। उन्नत तकनीक, उपलब्धता, माार्केटिंग गुरुओं की विपणन नीतियों और विज्ञापनों की तगड़ी व्यवस्था के सहारे बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने हमें उनके रोजमर्रा में इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं का आदी बना दिया। हमारे सपनों को पंख लगा दिए और सरकारीकरण को एक झटके में ध्वस्त कर दिया। इससे सरकार के पास नौकरियां खत्म हो गईं। नौकरियों का सारा दारोमदार प्रायवेट कंपनियों ने हथिया लिया। ऐसे में सरकारी कारखानों, मिलों पर तालाबंदी होने लगी। समाज रोजगार के लिए प्रायवेट सेक्टर और मल्टीनेशनल कंपनियों पर पूर्णत: निर्भर होने लगा। शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, दूरसंचार, बैंक, जैसी सरकारी सेवाएं निजी हाथों में चली गईं। हर तरफ मल्टीनेशनल कंपनियों का बोलबाला हो गया।
इनके दम पर बनेगा ‘डिजिटल इंडियाÓ
देश में ऐसे अनेक नेता हैं, जिनमें काबिलियत कूट-कूटकर भरी है, लेकिन आगे बढऩे का मौका न मिलने के कारण वे आज भी पार्टी कार्यक्रमों में दरी बिछाने-उठाने की भूमिका तक ही सीमित हैं।2001 में कोई सोच भी नहीं सकता था कि नरेंद्र मोदी भाजपा के सभी वरिष्ठ नेताओं को पीछे छोड़कर प्रधानमंत्री बन जाएंगे। पार्टी के अध्यक्ष रह चुके लालकृष्ण आडवाणी को टिकट के लिए इंतजार करना होगा। राजनाथसिंह को मोदी की हां में हां और ना में ना मिलाना होगी। राजनीति से लगभग बाहर होने के बाद वे देश के गृहमंत्री बनेंगे। जसवंतसिंह ने भी नहीं सोचा होगा कि उनकी पार्टी की सरकार बनने का वक्त आने पर उन्हें टिकट न देकर पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा। एक चाय वाला खुद के देश में प्रधानमंत्री बनता है और एक महत्वाकांक्षी साधारण सी टीवी कलाकार केंद्रीय मंत्री के पद को सुशोभित कर सकती है। लोकतंत्र इसी को कहते हैं। सरकार में मंत्री बनकर इसे चलाने की जिम्मेदारी निभाने वालों के लिए शैक्षणिक योग्यता कोई पैमाना नहीं है। मोदी के मंत्रिमंडल में शामिल कुछ साथियों की शैक्षणिक योग्यता पर नजर डालें तो यह विचार उठना स्वाभाविक है कि क्या इन्हीं के दम पर वे ‘डिजिटल इंडियाÓ बनाने की बात कर रहे हैं। इन मंत्रियों में से कुछ स्नातक होना तो दूर, हायर सेकंडरी भी उत्तीर्ण नहीं हैं। देखिए एक बानगी….
स्मृति ईरानी : मैट्रिक, पत्राचार से 12वीं
मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी मात्र 12वीं कक्षा उत्तीर्ण हैं और वो भी पत्राचार के जरिये। उन्हें मंत्रालय तो दूर की बात है, न लोकसभा, न विधानसभा, न नगर पालिका और न ही ग्राम पंचायत का अनुभव है। वे अब नौजवानों का भविष्य तय करेंगी। आईआईटीयन, डॉक्टर्स, पीएचडी स्कॉलर्स तथा हायर एजुकेशन के लिए पॉलिसियां बनाएंगी।
उमा भारती : छठी
उमा भारती जल संसाधन, नदी विकास और गंगा सफाई के लिए जिम्मेदार कैबिनेट मंत्री हैं। उनकी स्कूली शिक्षा मात्र कक्षा 6 तक हुई है। नवम्बर 2004 में लालकृष्ण आडवाणी की आलोचना के बाद उन्हें भाजपा से बर्खास्त कर दिया गया। उन्हें मोदी मंत्रिमंडल में भारत की जल संसाधन नदी विकास और गंगा सफाई मंत्री की जिम्मेदारी सौंपी।
अशोक गजपति राजू : मैट्रिक
नागरिक उड्डयन मंत्री अशोक गजपति राजू तेलुगूदेशम पार्टी के सदस्य हैं। उनकी शिक्षा मैट्रिक तक ही हुई। उनके पिता पी.वी. गजपति राजू विजयानगरम क्षेत्र के राजा रहे।
अनंत गीते : मैट्रिक
महाराष्ट्र के रायगढ़ क्षेत्र से सांसद चुने गए अनन्त गीते केंद्र सरकार में भारी उद्योग और सार्वजनिक उपक्रम मंत्री हैं। उन्हें शिवसेना के कोटे से मंत्री बनाया है। अनंत गीते ने मैट्रिक तक शिक्षा प्राप्त की है।
विजय साम्पला : मैट्रिक
पंजाब से लोकसभा सांसद चुने गए विजय साम्पला को मोदी सरकार में सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण राज्यमंत्री बनाया है। अरब देशों में वे 10 साल तक प्लबंर लेबर का काम करते रहे। अब वे मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री बने हैं।