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न नैतिक मूल्य, न संस्कार और न रोजगार
आज भारत का शिक्षित युवा अपने शैक्षिक स्तर के अनुरूप नौकरी पाने हेतु संघर्षरत है…..
नई शिक्षा प्रणाली भारतीय युवाओं को दिशाहीन भविष्य के गर्त में धकेल रही है ………
युवाओं की इस भटकाव की स्थिति की पूरी जिम्मेदार वर्तमान शिक्षा प्रणाली ही है……
इंदौर। शिक्षा के क्षेत्र में विश्व गुरु रहे भारत की स्वयं की शिक्षा प्रणाली आज लहुलुहान है। वर्तमान भारतीय शिक्षा के इस विकृत स्वरूप ने शिक्षित बेरोजगारों की बहुत बड़ी फौज खड़ी कर दी है। आज भारत का शिक्षित युवा अपने शैक्षिक स्तर के अनुरूप नौकरी पाने हेतु संघर्षरत है। मल्टीनेशनल कंपनियों के प्रभाव एवं हस्तक्षेप से उनकी स्वार्थपूर्ति हेतु बनी यह नई शिक्षा प्रणाली भारतीय युवाओं को दिशाहीन भविष्य के गर्त में धकेल रही है। आज का शिक्षित युवा खुद निर्णय नहीं कर पा रहा है कि उसे कल क्या करना है, यही नहीं आज की स्थिति से भी वह खुश नहीं है। भारतीय युवाओं की इस भटकाव की स्थिति की पूरी जिम्मेदार वर्तमान शिक्षा प्रणाली ही है। व्यक्ति, समाज एवं देश के विकास की जिम्मेदारी जिस शिक्षा व्यवस्था की थी, वह आज निजी स्वार्थपूर्ति तक सीमित हो गई है। मल्टीनेशनल कंपनियों के दबाव एवं स्वार्थपूर्ति के परिणाम स्वरूप अस्तित्व में आई इस नई शिक्षा प्रणाली ने शिक्षा जैसे पवित्र कार्य को व्यापार बना दिया है, वहीं शिक्षण संस्थाओं ने कंपनियों का रूप ले व्यावसायिक सोच के साथ इसे कॉर्पोरेट बिजनेस की शक्ल दे दी है। भारतीय स्कूलों एवं कॉलेजों में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रमों में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया गया है।
निजी एवं सरकारी स्कूलों के द्वारा समाज को दो टुकड़ों में विभक्त कर उनके बीच बहुत बड़ी भेदभाव की खाई बना दी, वहीं पाठ्यक्रमानुसार युवाओं की सोच को भी विकृति दे, उनके बीच व्यावहारिक एवं भावनात्मक रूप से भेदभाव की दीवार खड़ी कर दी है। एक ओर तो सरकार शिक्षा का अधिकार को कानून बना उसके तहत मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था का ढिंढोरा पीट रही है, वहीं दूसरी ओर लाखों की फीस लेते ये निजी शिक्षा संस्थान सरकार की नीतियों का मजाक बना रहे हैं। प्रश्न यही है कि क्या नेताओं की मिलीभगत एवं सहयोग के बिना यह संभव है?
बुनियादी शिक्षा के ढांचे में प्रायमरी स्तर तक आमूलचूल परिवर्तन के साथ विभिन्न श्रेणियों पर विभाजन कर परम्परागत एकरूपता को सीबीएसई, आईसीएसई और आईएससी जैसे दिखावटी क्षेत्रों में विभाजित कर दिया गया है, वहीं उच्च शिक्षा के स्वरूप को भी एमबीए आदि जैसे क्षेत्र खोलकर व्यावसायिक रूप दे दिया। इस तरह की डिग्री डिप्लोमा आधारित नई शिक्षा व्यवस्था लागू कर इन तथाकथित शिक्षा माफियाओं ने अपनी मजबूत लॉबी देश में स्थापित कर ली एवं इन भ्रष्ट नेताओं, शराबमाफियों, बिल्डर माफिया एवं अवैध गतिविधियों के कमाये काले धन का निवेश इस शिक्षा लॉबी ने देश में शिक्षा जैसे पवित्र संस्थानों जहां भारत का भविष्य निर्धारित होता है, को अपने घिनौने व्यवसाय के अनुरूप शिक्षा प्रणाली को सरकारी नीति-नियम बनवा वैधानिक तौर पर लागू भी करवा लिया।
भारत में आज 12.50 लाख इंजीनियर एवं मैनेजर प्रतिवर्ष तैयार हो रहे हैं। भारत के 2788 इंजीनियरिंग संस्थानों में तकरीबन आठ लाख से ज्यादा इंजीनियर एवं 2231 मैनेजमेंट संस्थान में 4.5 लाख से ज्यादा मैनेजर प्रतिवर्ष डिग्री ले रहे हैं। सवाल यहां यही उठता है कि वो क्या करेंगे, क्या रोजगार के लिए उन्हें अवसर हैं? उत्तर है- नहीं। ऑफिस-ऑफिस घूमते ये मैनेजर व इंजीनियर इसका सबूत हैं। क्या आज सचमुच रोजगार के अवसर की कमी है या एजुकेशन सिस्टम कमजोर है? जो इन बेरोजगार इंजीनियरों एवं मैनेजर्रों की फौज खड़ी कर रहा है?
सोचना होगा, 50 से 80 के दशक तक 30 सालों में इंजीनियरों एवं मैनेजरों की स्थिति ऐसी नहीं थी, इंजीनियर एवं एमबीए की डिग्री बहुत सम्मानजनक मानी जाती थी। कुछ सालों पूर्व तक भी कंपनियां इन्हें हाथोहाथ लेती थी। संचार क्रांति ने ज्ञान का ग्लोबलाइजेशन कर दिया है। औद्योगिक एवं आर्थिक विकास की गति भी बढ़ी है। नए-नए क्षेत्र खुल गए हैं, परन्तु फिर भी रोजगार नहीं, स्पष्ट है शिक्षा प्रणाली में ही कमी है। शिक्षा मानक मापदंडों को पूरा नहीं कर पा रही है, नहीं तो बेरोजगारी इतनी नहीं होती। सोचना होगा, इन संस्थानों में क्या, कैसे पढ़ाया जा रहा है और कौन पढ़ा रहा है? इन पाठ्यक्रमों का औचित्य क्या है। इससे किसको लाभ है? पढ़ाई की प्रणाली क्या व पढ़ाने वालों का स्तर कैसा है, ये सब जांच के विषय हैं।
छात्रों को ग्राहक समझकर बेहतर भविष्य के सपने दिखाते इन शिक्षण संस्थानों की हकीकत क्या है, इन्हें कैसे मान्यता दे दी गई है, कौन है जवाबदार? शिक्षण संस्थानों एवं पाठ्यक्रमों में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। भारत की कई नामी एवं प्रतिष्ठित प्रोडक्शन एवं सर्विस सेक्टर की कंपनियां अपनी जरूरतों के अनुसार इंजीनियर एवं मैनेजर के लिए Campus Placement कर इन युवाओं को रोजगार उपलब्ध करवा रही थीं। आज इन कंपनियों में तो तकरीबन Vacancy पूर्ण हो चुकी है, परन्तु शिक्षण संस्थानों ने इन्हीं कंपनियों के Campus Placement को अपने व्यवसाय का हथियार बनाकर अपने संस्थान के विज्ञापनों में इनके नामों का उपयोग कर छात्रों को भ्रमित करते हुए अपने यहां एडमिशन दिए।
व्यावसायिक दृष्टिकोण वाले इन शिक्षा संस्थानों ने छात्रों को भेड़चाल चलवा इन्हें इंजीनियर एवं मैनेजर बनने के कोर्स की ओर धकेल दिया आज स्थिति भयावह हो चुकी है। इन शिक्षण संस्थानों के भ्रमजाल में फंसकर आज का युवा दिशाहीन, लक्ष्यहीन होकर भटक रहा है। लाखों की नौकरी के ख्वाबों के साथ इन कोर्सों को करने वाला कुछ हजार की नौकरी मन-मारकर कर रहा है।
अस्सी के दशक की शुरुआत तक जहां इंजीनियरिंग में सिविल, मैकेनिकल तथा इलेक्ट्रिकल्स क्षेत्र ही थे, वहीं आज व्यावसायिक शिक्षा के विस्तार तथा अर्थव्यवस्था के विकास के साथ-साथ इलेक्ट्रानिक, कम्प्यूटर साइंस, इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी, कम्युनिकेशन, फैशन डिजाइनिंग, एनिमेशन कोर्सेस एयरएविएशन वैश्विक कंपनियों की मांग के अनुसार बनते चले गए।
वैसे ही मौैनेजमेंट कोर्स में पहले के सिर्फ प्रबंधन के साथ वर्तमान में Marketing, Finance, H.R, Retail, HOtel, Insurance, INternational,Busisness, InformationTechnology के साथ Hospital Management के नए क्षेत्र भी खोल दिए गए हैं। इन कोर्सों से प्रतविर्ष देश में तकरीबन 5 लाख मैनेजर्स और 8 लाख इंजीनियर्स डिग्री ले तैयार हो रहे हैं, परन्तु उन्हें रोजगार नहीं मिल रहा है। अनुसंधान एवं विश्लेषक कंपनियों के अनुसार आज देश में प्रतिवर्ष 1.5 लाख मैनेजर्स एवं इतने ही इंजीनियर्स की कंपनियों को अपने एक्सपेंशन प्लान के कारण आवश्यकता होती है। बाकी का? मल्टीनेशनल कंपनियों की आवश्यकतानुसार शुरू किए गए इन पाठ्यक्रमों से बने इन मैनेजर्स को उन कंपनियों द्वारा शुरुआती दौर में रोजगार दे अपनी आवश्यकतापूर्ण कर ली गई, परन्तु ये कोर्स आज भी इन शिक्षण संस्थानों द्वारा व्यवसायिक रूप से बड़े पैमाने पर धड़ल्ले से चलाए जा रहे हैं। उन्हें खुद पता है कि आज देश में मैनेजर्स एवं इंजीनियर्स की आवश्यकता नहीं के बराबर है, वहीं देश के बाहर रोजगार के अवसर भी शून्य के करीब होते जा रहे हैं.
यदि सही मायने में देखा जाए तो गलती पूर्ण रूप से इन शिक्षण संस्थानों की भी नहीं है, ये तो अपना व्यवसाय कर रहे हैं। कारोबार चला रहे हैं। देश के युवा ही वास्तविक स्थिति को नहीं समझ पा रहा है, अथवा समझते हुए भी अनजान बना भटक रहा है।उसके पास भी कोई आप्शन नहीं है। उसे डिग्री तो लेना ही है, मजबूरन वह यह कोर्स करता है तो इस व्यवस्था को दुरुस्त करने की जवाबदारी नीति निर्धारकों की ही बनती है। जो शिक्षा प्रणाली देश के युवाओं को रोजगार उपलब्ध नहीं करा सकती है। देश में प्रतिवर्ष बेरोजगारी की बहुत बड़ी फौज खड़ी हो रही है। ऐसी शिक्षा प्रणाली का क्या औचित्य है, वह किस काम की है। आज का यह शिक्षित युवा कल का भविष्य है, यदि इसे सही तरह से संभाला, संवारा नहीं गया तो यह भटक जाएगा और देश में बेरोजगारी के चलते अराजकता का माहौल बन अंर्तकलह, अंर्तयुद्ध जैसी स्थिति भी निर्मित हो सकती है। सिर्फ और सिर्फ देश के शिक्षा नीति निर्धारकों को ही इस असमानता, अराजगकता या होने वाली अंर्तकलह की स्थिति को रोकने के लिए कठोर कदम उठाकर निज स्वार्थ से परे एक मजबूत तथा रोजगार मुखी नई शिक्षा प्रणाली की नींव देश में रखना होगी, जल्द से जल्द देर नहीं करना है।
पिछले एक दशक में भारतीय शिक्षा जगत में आमूल-चूल परिवर्तन हुए हैं। जहां एक वक्त ऐसा था कि जब स्कूल, कॉलेज एवं विश्वविद्यालय सरस्वती के मंदिर समझे जाते थे। गुरुओं व शिक्षकों का समाज में स्थान पूज्यनीय एवं वंदनीय था। छात्रों में शिक्षा के प्रति लगन एवं समर्पण का भाव था। शिक्षा जगत पूर्णतया नैतिकता से सरोबार था। वक्त बदला, व्यवस्था बदली, दौर बदला, आज ग्लोबलाइजेशन व निजीकरण का जमाना है। सारी दुनिया का ज्ञान, बाजार, सभ्यता व संस्कृति के अब नैतिक मायने खत्म हो चुके हैं। अब सभी चीजें लोगों के सामने व्यवसायिक तरीके से आ रही है। उससे शिक्षा जैसा पवित्र माध्यम भी अछूता नहीं रहा। अब शिक्षा दान की वस्तु न होकर पूर्णतया व्यवसायिक हो गई है, जिसका बाजार आज भारत के अरबों, खरबों रुपए का है। सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था निजी हाथों में सौंप दी गई है। फिर वह चाहे इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, मेडिकल, फॉर्मेसी जैसे विषय हो, जिन्हें पढ़ाने व समझाने के लिए योग्य, कुशल एवं अनुभवी विद्वान शिक्षकों की आवश्यकता होती है और इन विषयों को पढऩे वाले छात्र मेधावी होते हैं। ये छात्र किसी भी देश व प्रदेश के लिए सबसे बड़ी बौद्धिक सम्पदा होते हैं। किन्तु आज के दौर में हालत बिल्कुल उल्टे हैं।सारे देश में इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, मेडिकल एवं फॉर्मेसी कॉलेजों की बाढ़ सी आई हुई है। नेताओं, मंत्रियों, व्यवसाइयों एवं उद्योगपतियों व कॉलेज खोलने की होड़ सी लगी हुई है। क्योंकि इस व्यापार में मुनाफा ही मुनाफा है और यह व्यापार प्रतिवर्ष तेजी से वृद्धि कर रहा है। सरकार को वोटों की चिंता है। अरबों रुपए की स्कालरशिप को एसी, एटी, ओबीसी के छात्रों की फीस के नाम पर बहाया जा रहा है। जो छात्र इंजीनियरिंग व मेडिकल जैसे गहन विषयों में शिक्षा लेने में लायक भी नहीं है। जिसका सीधा फायदा शिक्षा के व्यापारियों को मिल रहा है। शिक्षा के नाम पर इतना बड़ा धोखा व भारत के भविष्य के साथ सरकार व शिक्षा के व्यापारी दोनों मिलकर कर रहे हैं। यह आने वाले भविष्य के लिए ज्यादा घातक सिद्ध होगा।
भारत में उच्च शिक्षा के प्रति राज्य सरकार व केंद्र सरकार के बीच समन्वय की कमी होने की वजह ही मुख्य कारण है शिक्षा के व्यवसायीकरण का उच्च शिक्षा में राज्य सरकारों की भूमिका मुख्यत: न के बराबर है उच्च शिक्षा के मापदंड व स्टैंडर्ड को बनाए रखने के लिए शीर्ष निकाय यूजीसी, एआईसीटीआई नेशनल बोर्ड आफ एक्रीडेशन, आईजीएनओयू व डीईसी जैसे शीर्ष निकाय मुख्यत: केंद्र सरकार के अधीन हैं। वहीं डिस्टेंस व कौंसिल लर्निंग सेंटर के लिए प्रायवेट यूनिवर्सिटिया तथा उच्च शिक्षा के लिए जिम्मेदार मानव संसाधन मंत्रालय भी केंदर सरकार के अधीन आता है। यहां राज्य सरकारों को करने के लिए कुछ खास नहीं है, जबकि राज्य सरकारों की भी बराबर की जिम्मेदारी है, अपने राज्य के छात्रों को उच्च शिक्षित करने की इसके अलावा यूजीसी से मान्यता प्राप्त यूनिवर्सिटियों के कॉलेजों, डीम्ड यूनिवर्सिटी तथा उनके द्वारा चलाए जा रहे लर्निंग सेंटरों में छात्रों के साथ किसी भी तरह की धोखाधड़ी न हो, इसके लिए राज्यों के पास अधिकार होना आवश्यक है।
12वीं के बाद की शिक्षा मुख्यत: रोजगार के लिए होती है। किसी भी देश के समग्र उन्नति के लिए उसकी युवा पीढ़ी जिम्मेदार होती है। आज हमें, इंजीनियर्स, डॉक्टर, कुशल तकनीकी विशेषज्ञों एवं कारीगरों की जरूरत है न कि मार्केटिंग एक्जीकेटीव की फौज की (एमबीए) का मूल उद्देश्य मार्केटिंग व सेल्समैनों की फौज को खड़ा करना)। भारत के 80 प्रतिशत से ज्यादा लोग आज भी कृषि पशुपालन, आधारित अर्थव्यवस्था में जीवन यापन करते है। भारत गांवों का देश हैं, विकास एवं डेवलपमेंट की जरूरत गांवों में है। कम्प्यूटर इंजीनियरिंग, इन्फ रमेशन टेक्नोलाजी, एयरएविएशन कॉलेजों, फैशन डिजाइनिंग एनिमेशन जैसे कोर्सेस एवं कॉलेजो की जगह, कृषि कालेजों, डेयरी व कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण जैसी चीजों की तकनीक पर आधारित कॉलेजों एवं इंस्टिट्यूशंस की जरूरत है। ऐसे औद्योगिक संस्थान खोले जाए जहां पर युवाओं को कलर टेलीविजन, फ्रीज, वॉशिंग मशीन, कम्प्यूटर, लैपटाप, मोबाइल, स्कूटर, बाइक-कार जैसे उत्पादों को बनाना सिखाया जाए (भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बाजार है)। आज भात की शिक्षा जगत की सबसे बड़ी विडम्बना है, कि हम अपनी युवा पीढ़ी को मल्टीनेशनल कंपनियों को ज्यादा से ज्यादा लाभ पहुंचाने के लिए कुशल युवा मैनेजर्स एवं प्रतिभा को प्रशिक्षित किया जा रहा है। उनके फायनेंशयल उत्पादों, सर्विस सेक्टरो, इंश्यूरेंस कंपनियों, होटल, हास्पिटल, रिटेल बाजार एवं शेयर मार्केट के लिए लाखों कुशल मैनेजरों एवं एक्जीक्यूटिव तैयार करने के सैकड़ों आयतित पाठ्यक्रम एवं हजारों कॉलेजों के माध्यम से हम उनकी जरूरतों के लिए भारतीय युवा पीढ़ी को तैयार कर रहे हैं? इससे ज्यादा मजाक 110 करोड़ भारतीयों के साथ और क्या होगा, जिसका युवा नेतृत्व अपने गरीब अशिक्षित, अविकसित, देश के लाभ के लिए शिक्षित न होकर अपने विदेशी आकाओँ व मालिकों के लिए शिक्षित हो रहा है।
अनजान बन भटक रहे…

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यदि सही मायने में देखा जाए तो गलती पूर्ण रूप से इन शिक्षण संस्थानों की भी नहीं है, ये तो अपना व्यवसाय कर रहे हैं। कारोबार चला रहे हैं। देश का युवा ही वास्तविक स्थिति को नहीं समझ पा रहा है, अथवा समझते हुए भी अनजान बन भटक रहा है। उसके पास भी कोई आप्शन नहीं है। उसे डिग्री तो लेना ही है, मजबूरन वह यह कोर्स करता है तो इस व्यवस्था को दुरुस्त करने की जवाबदारी नीति निर्धारकों की ही बनती है। जो शिक्षा प्रणाली देश के युवाओं को रोजगार उपलब्ध नहीं करवा सकती, देश में प्रतिवर्ष बेरोजगारों की फौज खड़ी कर रही है, ऐसी शिक्षा प्रणाली का क्या औचित्य है, वह किस काम की ह? आज का यह शिक्षित युवा कल का भविष्य है, यदि इसे सही तरह से संभाला-संवारा नहीं गया, तो यह भटक जाएगा और देश में बेरोजगारी के चलते अराजकता का माहौल बन पारिवारिक अंतकर्लह जैसी स्थिति भी निर्मित हो सकती है।
लाखों के पैकेज की नौकरी का भ्रमजाल…

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शुद्ध व्यावसायिक दृष्टिकोण इन शिक्षा संस्थानों ने छात्रों को भेड़चाल चलवा इन्हें इंजीनियर एवं मैनेजर कोर्स की ओर धकेल दिया। आज स्थिति भयावह हो चुकी है। इन शिक्षण संस्थानों के भ्रमजाल में फंसकर आज का युवा दिशाहीन, लक्ष्यहीन होकर भटक रहा है। लाखों की नौकरी के ख्वाबों के साथ इन कोर्सों को करने वाला कुछ हजार की नौकरी मन-मारकर कर रहा है।
सरकार न के बराबर…
भारत में उच्च शिक्षा के प्रति राज्य सरकार व केंद्र सरकार के बीच समन्वय की कमी होने की वजह ही मुख्य कारण है शिक्षा के व्यवसायीकरण का। उच्च शिक्षा में राज्य सरकारों की भूमिका मुख्यत: न के बराबर है। इसके मापदंड व स्टैंडर्ड को बनाए रखने के लिए शीर्ष निकाय यूजीसी, एआईसीटीआई, नेशनल बोर्ड आफ अक्रेडटैशन, इग्नू व डीईसी मुख्यत: केंद्र सरकार के अधीन हैं। वहीं डिस्टेंस लर्निंग सेंटर के लिए प्रायवेट यूनिवर्सिटियां तथा उच्च शिक्षा के लिए जिम्मेदार मानव संसाधन मंत्रालय भी केंद्र सरकार के अधीन आता है। यहां राज्य सरकारों को करने के लिए कुछ खास नहीं है, जबकि राज्य सरकारों की भी बराबर की जिम्मेदारी होना चाहिए।

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