मम्मी-पापा, सॉरी मैं आपका सपना पूरा नहीं कर सका। मौत को गले लगाने से पहले उसका यही आखिरी बयान था। पुलिस ने इस सुसाइड नोट को ऐसे कमरे से बरामद किया जहां एक छात्र की सड़ी हुई लाश पड़ी थी। 18 साल का यह छात्र राजस्थान के कोटा शहर में इंजीनियरिंग की कोचिंग कर रहा था, लेकिन पढ़ाई का दबाव झेल नहीं पाया। हर साल एक लाख से ज्यादा लड़के-लड़कियों को अपने अत्याधुनिक कोचिंग सेंटरों की ओर आकर्षित करने वाले कोटा शहर में हर महीने औसतन एक बच्चा कामयाबी की दौड़ में पिछड़कर मौत को गले लगा लेता है। यही नहीं, कम से कम 100 बच्चे हर रोज शहर के किसी न किसी मनोचिकित्सक से परामर्श लेने जाते हैं। अब तो प्रमुख कोचिंग सेंटरों ने अपने यहां स्थायी रूप से मनोचिकित्सक भर्ती कर लिए हैं, ताकि बच्चों की मानसिक समस्याओं को तत्काल हल किया जा सके।
कोटा में आखिर ऐसी क्या कमी है, जो भविष्य संवारने के लिए यहां आए बच्चों को इस हद तक तोड़ देती है कि वे मौत को गले लगाने जैसा भयानक कदम उठा लेते हैं। यह सिर्फ पढ़ाई का दबाव है, या माता-पिता की महत्वाकांक्षाओं का बढ़ता बोझ? ऐसा तो नहीं कि बच्चों से ज्यादा दोषी उनके मां-बाप हैं जो बच्चों पर रेस के घोड़े की तरह मोटे पैसे का दांव लगाते हैं और उन्हें जीत से कम कुछ नहीं चाहिए। कोचिंग के बच्चों के झुंड में अगर आप किसी बच्चे को रोककर इस बारे में बात करेंगे तो उनमें से बहुत कम ही मुखर होते हैं, लेकिन जैसा कि कोटा के वरिष्ठ मनोचिकित्सक कहते हैं, ‘आप बाहर से इस बात का अंदाजा नहीं लगा सकते कि आखिर बच्चों के मन में चल क्या रहा है।Ó अग्रवाल शहर के ऐसे डॉक्टर है जिन्होंने वर्ष 2010 में कोटा शहर में तीन महीने के भीतर आत्महत्या के 35 मामले सामने आने के बाद प्रशासन के सहयोग से ‘होपÓ नाम से मनोचिकित्सा कॉल सेंटर की स्थापना की थी। इस कॉल सेंटर का मकसद था कि जो छात्र या आम नागरिक डॉक्टर तक आने में संकोच कर रहा है, वह भी किसी भी वक्त फोन लगाकर मनोवैज्ञानिक की सलाह ले सके। उनके कॉल सेंटर में पिछले तीन साल में करीब 4,000 लोग फोन कर चुके हैं और इसमें से आधे से ज्यादा कोचिंग के छात्र हैं। बच्चों की मनोदशा को केवल मनोचिकत्सक विशेषज्ञ ही भांप सकते हैं।
कोटा में इस तरह की समस्याएं कितनी गहरी हैं, इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि करियर प्वाइंट कोचिंग में परामर्श देने वाले मनोचिकित्सक डॉ. दीपक गुप्ता ने शहर की कोचिंग क्लासों में पढऩे वाले बच्चों की मानसिक समस्याओं पर विधिवत शोध ही कर डाला। Óप्रिवेंशन ऑफ साइकोलॉजिकल इलनेस इन कोचिंग स्टूडेंट्स ऑफ कोटाÓ (कोटा के कोचिंग छात्रों में मानसिक बीमारियों की रोकथाम) नाम से प्रकाशित शोध में डॉ. गुप्ता ने शहर के 400 बच्चों पर अध्ययन किया। इनमें से 200 बच्चे कोचिंग क्लास के और 200 बच्चे सामान्य स्कूलों के थे। अपने शोध परिणाम में उन्होंने पाया कि कोचिंग में पढऩे वाले 26 फीसदी बच्चे जहां डिप्रेशन और एंग्जाइटी का शिकार हैं, वहीं सामान्य पढ़ाई करने वाले 14 फीसदी बच्चे ही ऐसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। इस शोध से यह बात साफ हुई कि बच्चों के तनाव की प्रमुख वजहें थीं—कोचिंग का अतिरिक्त दबाव, बैच में बदलाव, गलत विषय का चयन, बच्चे को अपनी क्षमता के बारे में सही जानकारी न होना, और होम सिकनेस। ऐसे में कोचिंग संस्थानों द्वारा ली जाने वाली टेस्ट में जब बहुत से बच्चों की रैंक अचानक गिर जाती है तो वे यह झटका बर्दाश्त नहीं कर पाते। अगर ऐसे में परिवार वालों ने भी बच्चे के साथ सख्ती की तो कई बार वे आत्महत्या की हद तक चले जाते हैं। कोटा के कोचिंग संस्थानों ने अपने यहां स्थायी रूप से मनोचिकित्सक तैनात कर रखे हैं, लेकिन मनोचिकित्सक ही इस समस्या का एकमात्र इलाज नहीं है।
एलेन कोचिंग में छठीं क्लास से ही बच्चों को बड़े सपने दिखाए जाते हैं
एलेन जैसे कोटा के कोचिंग संस्थान कॉन्वेंट स्कूलों के बच्चों का डाटा स्कूलों से खरीदकर टैलेंटेक्स नाम की परीक्षाएं 6 से 9वीं क्लास तक के बच्चों की कराते हैं। उनको करोड़ों की स्कॉलरशिप का लालच दिया जाता है। परीक्षा में छात्र पास हो या फेल, सबको सफलता का मैसेज या रिजल्ट भेज देते हैं और उनके अभिभावकों को बुलाकर उन्हें झूठे दावे, अपने यहां सफल दामों की फर्जी लिस्ट बताकर दिग्भ्रमित कर देते हैं, जिससे अभिभावकों को यह लगने लगे कि यदि उनका बच्चा इस कोचिंग में जाएगा तो निश्चित ही सफल हो जाएगा। इसी लालच में वो अपने बच्चे को हताशा, अवसाद यहां तक कि आत्महत्या तक के लिए मजबूर कर देते हैं, क्योंकि इन कोचिंग क्लासेस का एकमात्र उद्देश्य येन-केन प्रकारेण छात्र को भर्ती करना है। चाहे उसमें काबिलियत हो या न हो। सीधा-सादा, सरल व आज्ञाकारी छात्र बेचारा इस जाल में फंस जाता है और मां-बाप की महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए हताशा व निराशा की गर्त में डूब जाता है। उनकी कच्ची उम्र। यही वह उम्र है जब बच्चा पहली बार अपने मन की करने की स्थिति में होता है। यहीं से उसे भविष्य का नागरिक बनने के लिए साधना भी करनी पड़ती है। इतने सारे आयामों के बीच संतुलन और विवेक ही उसका साथी है। मनोचिकित्सक कहते हैं कि बहुत ज्यादा संवेदनशील बच्चों को भीड़ में झोंक देना, भाड़ में झोंक देने से कम नहीं है।
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