हमें किसने पैदा किया और क्यों?
हमारा क्या भविष्य है?
कौन जवाबदार है? समाज या सरकार? या मेरे मां-बाप?
अभी कुछ साल पहले ही जब राजस्थान के अलवर के दो गांवों में दिल्ली पुलिस राजधानी से लापता हुई लड़कियों की तलाश में पहुंची तो यह जानकार सन्न रह गईं कि इस गांव में कम उम्र की गायब लड़कियों की तादाद काफी ज्यादा थी। बाकी बची लड़कियों को देखरेख के साथ पाला जा रहा था। ठीक उसी तरह जैसे बकरे को बलि चढ़ाने से पहले पाला जाता है। यहां पांच-छह साल की लड़कियों को लगातार उस ऑक्सीटॉक्सिन का इंजेक्शन दिया जा रहा था, जिसका इस्तेमाल अधिक कमाई के लालच में दूधवाले गाय और भैंसों से अधिक दूध पाने के लिए किया करते हैं, ताकि इन सभी बच्चियों की काया जल्द से जल्द चौदह-पन्द्रह साल की किशोरियों की तरह हो जाए। किशोरी काया में ढालने की ये अमानवीय प्रयोगशालाएं देश के रेडलाइट जगहों पर आसानी से पाई जा सकती है। इन अमानवीय प्रयोगशालाओं में तैयार करने के बाद इस तरह की ‘ऑक्सिटॉक्सिन पीडि़त बच्चियोंÓ को मोटी रकम लेकर दिल्ली, मुम्बई से लेकर सिंगापुर तक भेजा जाता है। बाल यौन शोषण का यह भयावह रूप आज भी देश की बदनाम गलियों में देखा जा सकता है। समय-समय पर धर-पकड़ भी होती है। बातें मीडिया में आती हैं। बरामदगी के कुछ दिनों के बाद उस बच्ची की याद न मीडिया को रहती है, न गैर सरकारी संस्था को और न ही पुलिस को। बाल यौन शोषण का यह घिनौना उदाहरण तो बच्चों के विरुद्ध किए जाने वाले अपराध का एक नमूना मात्र है।
वास्तव में बच्चों के विरुद्ध किए जाने वाले अपराध की श्रेणियों की लिस्ट बनाई जाए तो निश्चित तौर पर माथे पर बल पड़ जाएंगे। छोटे-छोटे बच्चों को स्कूल भेजने के बजाय मजदूरी के काम में लगा दिया जाता है। अधिकांंश बंधुआ माता-पिता अपने बच्चों की पिटाई करते हैं। कक्षा में शिक्षक भी उनकी पिटाई करते या फिर जाति व धर्म के आधार पर उनके साथ भेदभाव किया जाता है। महिला बाल शिशु को जन्म लेने से रोका जाता है। इसके लिए उनकी गर्भ में या फिर जन्म के बाद हत्या कर दी जाती है फिर उन्हें परिवार या समाज में भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। जन्म के बाद बालिकाओं को बाल-विवाह, बलात्कार या फिर तिरस्कार की मार अलग से झेलना पड़ती है। आसमान में पतंग उड़ाने, कहीं दूर तक सैर तक जाने, मजे -मौज और पढ़ाई करने वाले दिनों में अपनी इच्छाओं का दमन करके बच्चों का एक बड़ा वर्ग कहीं कल-कारखानों में, कहीं होटलों में तो कहीं ऊंची चहारदीवारियों में बंद कोठियों की साफ-सफाई में लगा हुआ है। कॉलोनियों के बाहर पड़े कूड़ेदानों में जूठन तलाशते मासूमों, पन्नी बटोरने वालों की संख्या करोड़ों में है। मां-बाप के प्यार से वंचित, सरकारी अनुदानों, राहतों की छांव से विभिन्न कारणों से दूर इन बहिष्कृत बच्चों को दो वक्त की रोटी तक नसीब नहीं है। इन बच्चों को सूरज की पहली किरण के साथ ही पेट की आग शांत करने की चिंता सताने लगती है। इसके लिए वे ट्रेनों, बसों व सड़कों पर केले, मूंगफली, पानी के पाउच व अखबार बेचने निकल पड़ते हैं। ऐसे बच्चों की भी कोई कमी नहीं है जो हाथ में पॉलिश की डिब्बी व ब्रश लिए बूट पॉलिश करते दिखाई दे जाते हैं। होटलों, ढाबों पर चंद पैसों की खातिर जूठन साफ करने वाले छोटू, चवन्नी, अठन्नी, भैया, पप्पू, मुन्ना, छुटकू, बारीक, लौंडे और न जाने ऐसे कितने जाने -पहचाने व अनगिनत नाम हैं, जो दिन भर अपने मालिक के इशारे पर इधर से उधर भागते फिरते हैं।
बाल मजदूरी : रोता बचपन
दुनिया में बच्चों की एक बड़ी आबादी मेहनत की भट्टी में तपने को मजबूर है। देश के भावी कर्णधार मजबूरी में अपने बचपन की खुशियों को गिरवी रख देते हैं। जिन बच्चों के हाथों में खिलौने, कलम, कॉपी- किताब, स्लेट-पेंसिल होना चाहिए थी, उन नाजुक हाथों में जूते पालिश करने के ब्रश, दूसरों के पढऩे के लिए स्लेट-निर्माण की सामग्रियां, पत्थर तोडऩे के हथौड़े, कालीन बुनने के लिए धागों का जाल होता है, जिसके मकडज़ाल में उनकी जिंदगी पिसती रहती है। जिन बच्चों को मां- बाप की गोद में होना चाहिए था, भाई-बहन की बांहों में जिनको दुलार मिलना चाहिए था, वे भयंकर ठंड, तपती दोपहरी या घनघोर वर्षा के थपेड़ों या जलती भट्टियों के शिकार होते हैं। वे मिट्टी के दीये या मोमबत्ती जलाकर दीवाली नहीं मनाते, बल्कि अपना बचपन सुलगाकर, ऊंगलियां जलाकर अमीर बच्चों की दीवाली के उत्सव के लिए पटाखे या मोमबत्ती बनाते हैं। कानून किताबों में पड़ा ऊंघ रहा है, क्योंकि उसे जगाने वाले हाथ देखकर भी कुछ नहीं करते। इस पर भी दर्दनाक बात यह कि बच्चों के मुद्दे कभी विधानसभा और संसद में गंभीरता और नियमितता से उठाए ही नहीं जाते, क्योंकि बच्चों का कोई वोट बैंक नहीं होतो। देश में बाल मजदूरों की संख्या स्वयंसेवी संस्थाओं के मुताबिक दो करोड़ नब्बे लाख है। मप्र में यह आंकड़ा दस लाख के आसपास है। मतलब 20 लाख बच्चे बेहतर शिक्षा से वंचित हैं और शारीरिक -मानसिक विकास से भी। भारतीय संविधान ने देश के चौदह वर्ष तक के हर बच्चे को अनिवार्य और नि:शुल्क शिक्षा का अधिकार दिया गया है। जाहिर है यह दस लाख बच्चे इस हक से तो महरूम हैं ही, पर यह संविधान का सीधे -सीधे मखौल उड़ाने वाली बात है।
मां-बाप भी करते हैं जुल्म
बाल शोषण आधुनिक समाज का एक घिनौना और खौफनाक सच बन चुका है। वर्तमान दौर में निर्दोष एवं लाचार बच्चों को मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताडि़त करने की घटनाएं आम हो चुकी हैें। जबकि वास्तविकता यह है कि बाल शोषण बच्चों के मानवाधिकारों का उल्लंघन है। सामान्यतया हम यही मानकर चलते हैं कि बाल शोषण का मतलब बच्चों के साथ शारीरिक या भावनात्मक दुव्र्यवहार है, लेकिन बच्चे के माता-पिता या अभिभावक द्वारा किया गया हर ऐसा काम बाल शोषण के दायरे में आता है, जिससे बच्चे पर बुरा प्रभाव पड़ता हो या जिससे बच्चा मानसिक रूप से भी प्रताडि़त महसूस करता हो। पीडि़त बच्चे डर के चलते कुछ भी बोलना नहीं चाहते। केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा यूनीसेफ के सहयोग से कराए गए एक अध्ययन से जो बात सबसे ज्यादा उभरकर सामने आई है, वह यह है कि हर तीन में से दो बच्चे कभी न कभी शोषण का शिकार रहे हैं। लगभग 53.22 प्रतिशत बच्चों ने किसी न किसी तरह के शारीरिक शोषण की बात स्वीकारी तो 21.90 प्रतिशत बच्चों को भयंकर शारीरिक उत्पीडऩ का शिकार होना पड़ा। इतना ही नहीं, करीब 50.76 प्रतिशत बच्चों ने शारीरिक प्रताडऩा की बात कबूली।
जानवरों से भी सस्ती दर में बिकते हैं बच्चे
“बचपन बचाओ आंदोलन” के अनुसार भारत में हर रोज करीब 165 व साल भर में 60 हजार बच्चे लापता हो जाते हैं। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा बच्चे गायब हुए हैं। पश्चिम बंगाल दूसरे नंबर पर है और दिल्ली तीसरे नंबर पर है। बचपन बचाओ आंदोलन के मुताबिक ज्यादातर लापता बच्चों को गैरकानूनी ढंग से काम पर लगाया जाता है। जानवरों से भी सस्ती दर में बच्चों को बेचा जाता है। जहां एक भैंस की कीमत कम से कम पंद्रह हजार रुपए होती है, वहीं देश में बच्चों को 500 से लेकर 2500 रुपए में आसानी से बेचा जाता है। अधिकतर बच्चों से या तो मजदूरी कराई जाती है या सेक्स वर्कर का पेशा। गुम हुए बच्चों में सर्वाधिक 12-19 वर्ष की लड़कियां हैं और सामान्यत: 0-19 वर्ष तक के लड़के व लड़कियां हैं। 90 प्रतिशत गुम हुए बच्चे झुग्गी-झोपडिय़ों व स्लम क्षेत्र के हैं। गुम हुए कुल बच्चों में से 80 प्रतिशत पलायित लोगों के, 50 प्रतिशत मुस्लिम समुदाय से, 80 प्रतिशत एससी/एसटी और ओबीसी समुदाय से तथा 90 प्रतिशत बच्चे असंगठित क्षेतों में कार्य करने वाले मजदूरों के हैं।
बच्चों के पुनर्वास के लिए आश्रय तक नहींं?
देश का संविधान बच्चों से किए गए उन वादों के लिए भी जवाबदेह हैं, जो उन्हें स्वस्थ और विकास करने का सम्पूर्ण अवसर देने के लिए किए गए हैं, लेकिन आज स्थिति यह है कि बच्चों के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। हम बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं। कानून बनाते हैं, पर बदकिस्मती से जमीनी स्तर पर उसे लागू करने का प्रयास ही नहीं करते। हमारे पास जरूरतमंद बच्चों के पुनर्वास के लिए आश्रय तक नहीं हैं। जो हैं, वे अपराधी बच्चों के सुधार-गृह हैं। मजबूरी में हम मासूम बच्चों को भी अपराधी या आरोपित बच्चों के साथ रखते हैं। यह असंवेदनशीलता धड़ल्ले से बरती जा रही है। पुनर्वास व्यवस्था की कमी के चलते ही हम फुटपाथों पर बच्चों को भीख मांगते देखते हैं। देश के सुधार-गृहों पर सरकार को एक श्वेत पत्र जारी करना चाहिए, ताकि देश की जनता उनकी वास्तविक स्थिति का पता चल सके।
देहव्यापार: अहम अपराध
बच्चों को सेक्स टूरिज्म या देह-व्यापार में उन्हें लगाना सबसे प्रमुख है। यह एक संगठित अपराध है, जिसमें बड़े पैमाने पर बच्चों को धकेला जा रहा है। एक अन्य तरीके से बच्चों का अंग-भंग कर उनसे भीख मंगवाने का भी व्यवसाय चल रहा है। इधर, चाइल्ड पोर्नग्राफी के रूप में बच्चों के खिलाफ अपराध का एक नया बाजार तैयार हुआ है। पिछले चार-पांच वर्षों में इस अपराध में काफी उछाल आया है। यह एक प्रकार का सायलेंट क्राइम है, जिसे हम साइबर क्राइम के अंतर्गत रख सकते हैं। अगर इन पर ध्यान दिया जाए तो अपराध के आंकड़ों में जबरदस्त उछाल आ जाएगा। स्कूलों में शिक्षकों द्वारा बच्चों के यौन शोषण की भी एक नई प्रवृत्ति इधर बड़े पैमाने पर देखने में आ रही है, जिसे देखते हुए स्कूलों के नियम-कानूनों में भी बदलाव लाने की जरूरत सामने आई है।
सफेद हाथी बने आयोग
देश का संविधान बिना किसी भेदभाव के सभी बच्चों की हिफाजत, देखभाल, विकास और शिक्षा की गारंटी देता है। बाल मजदूरी, बंधुआ मजदूरी, शिक्षा और बाल अधिकारों से सम्बंधित अनेक कानून बने हुए हैं, किंतु इन पर अमल करने की किसी की भी जवाबदेही नहीं है। बाल अधिकारों की रक्षा के लिए राष्ट्रीय व राज्य आयोग बनाए गए हैं। सफेद हाथी बने इन आयोगों से भला कौन पूछे कि इतने भारी- भरकम बजट की कीमत पर इन्होंने कितने बच्चों को उत्पीडऩ से बचाया? हमारी जानकारी में तो एक भी बच्चे को बंधुआ मजदूरी से छुटकारा दिलाकर पुनर्वासित करने की कोई घटना नहीं है। न ही बलात्कार, अपाहिज बनाकर जबरिया भीख मंगवाने, बाल वेश्यावृत्ति की किसी घटना पर उनका ध्यान जाता है, इंसाफ दिलाना तो दूर की बात है।
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