सामाजिक, पारिवारिक, राजनीतिक रिश्ते कर रहे हैं एक-दूसरे को ब्लैकमेल
हर वक्त डर बना रहता है कि कोई झूठे केस में न फंसा दे
अदालतों को झूठ बोलकर गुमराह करना, दूसरों को क्षति पहुंचाने की नीयत से प्रायोजित होकर पुलिस से मिलीभगत कर कानून का दुरुपयोग, मानहानि और ब्लैकमेलिंग कर रहे हैं झूठे मुकदमे दर्ज करवाने वाले निहित स्वार्थी तत्व
आतंकवाद को सामान्यत: भय का माहौल पैदा करने वाले शब्द के रूप में समझा जाता है और इस शब्द का समाज में मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी काफी गहरे तक है। जब भी किसी व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के समूह या व्यवस्था द्वारा दूसरों को विभिन्न तरीकों से भयभीत करके अपने स्वार्थो की पूर्ति का प्रयास किया जाता है इसके बदले में अपने राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक अथवा धार्मिक लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास किया जाता हो तो उसे आतंकवाद कहा जाना चाहिए। जब राजनेता अथवा बाहुबली लोग अपनी राजनैतिक या अन्य प्रकार की ताकत से लोगों को डरा-धमकाकर धन-उगाही करते हैं या उनसे तरह-तरह के लाभ लेते हैं तो वह भी एक किस्म का आतंकवाद है। वहीं बड़े आश्चर्य एवं शर्म की बात है कि देश में कानून व पुलिस की व्यवस्था अपराधियों को सजा दिलाने और उनमें कानून और पुलिस के प्रति भय पैदा करने के लिए की गई है। जबकि हो इसका ठीक उल्टा रहा है। अपराधियों की जगह कुछ स्वार्थी तत्व इन कानूनों का दुरुपयोग कर समाज के ऐसे लोगो पर कहर ढा रहे है, जो कि अपराधी है ही नहीं। भारत में तकरीबन हर तरफ आजकल कानून और पुलिस का भय दिखाकर, झूठे मुकदमे दर्ज करवाने का कहकर अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति का प्रयास किया जा रहा है। यह सब समाज के उन रिश्तों में हो रहा है, जो किसी भी सभ्य समाज की बुनियाद है और जो आदतन अपराधी नहीं हैं। फिर चाहे बात पति-पत्नी की हो, देवर-भाभी, सास-ससुर, प्रेमी-प्रेमिका जैसे पारिवारिक रिश्तों की हो, गुरु-शिष्य का पवित्र रिश्ता हो, साहूकार व लेनदार के मामले हों, बॉस या अधीनस्थ कर्मचारी का मामला हो,मकान मालिक एवं किराएदार ,यहां तक कि विपक्षी कार्यकर्ता और सत्तारूढ़ सरकारों की बात हो, हर तरफ अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए कानून की आड़ में या कानून का भय दिखाकर झूठे मुकदमे में फंसाकर लोगों से उचित या अनुचित मांगें मनवाई जा रही हैं। केंद्र सरकार से राज्य में विपक्षी पार्टियों की सरकारों को भी यही डर सताता रहता है कि कहीं कानून की आड़ में कोई झूठे मुकदमे में न फंसा दिया जाए। सरकारी योजनाओं में धांधलियों को उजागर करने के लिए मांगी गई सूचना के कारण भ्रष्ट लोग आरटीआई कार्यकर्ताओं, ईमानदार पत्रकारों, सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर इसी तरह के आरोपों में झूठे मुकदमे दायर करते रहते हैं। इस तरह के झूठे मुकदमे दर्ज करने में सबसे महती भूमिका निभाती है राज्यों की भ्रष्ट पुलिस, क्योंकि न्यायालय, कानून और आम आदमी के बीच में सही न्याय और इंसाफ के लिए पुलिस की जांच और विवेचना सबसे अहम कड़ी है। इस देश की कानून व्यवस्था का सबसे बड़ा श्राप है कि किसी भी शिकायत की जांच सिर्फ पुलिस ही करेगी। वो चाहे तो निष्पक्ष जांच करे या मनगढ़ंत, चाहे तो आरोपी बनाए या छोड़ दे, चाहे मामला दर्ज करे या चाहे तो खात्मा पेश करे, केस दर्ज कर भी ले तो भी असीमित समय तक जांच जारी है, के नाम पर गिरफ्तारी न करे। बाद में ले-देकर अपराध नहीं बनता है की ‘क्लीनचिटÓ दे दे। यह सब हो रहा है कानून का भय दिखाकर, इसे कहते हैं कि समाज ‘कानूनी आतंकवादÓ के साए में दमघोंटू माहौल में जी रहा है।
एक गलत औरत अगर झूठे रेप केस में कामयाब हुई तो दफा 376 आईपीसी में पुरुष को उम्र कैद तक की सजा हो सकती है। अगर औरत कामयाब नहीं हुई और पुलिस ने झूठ पकड़ भी लिया तो दफा 182 आईपीसी में सजा मात्र 6 महीने की होगी। वो भी तब, जब पुलिस दफा 182 आईपीसी का केस बनाए, जो कि वो कभी बनाती ही नहीं है और अदालतें भी झूठे मुकदमे दायर करने वालों पर संज्ञान नहीं लेती हैं। मतलब साफ है कि झूठे मुकदमे डालने वालों पर किसी का भी कोई नियंत्रण है ही नहीं। ना पुलिस का और ना ही अदालतों का। इस कारण भी अदालतों पर मुकदमों का बोझ बढ़ता ही जा रहा है। भला इसे कौन रोक पाएगा? आज कार्यालयों में भी महिला कानूनों का दुरुपयोग खुलेआम हो रहा है। ऑफिस की हर छोटी-बड़ी बात कब ‘महिला उत्पीडऩÓ और ‘कार्य स्थल पर यौन अत्याचारÓ के मुकदमे में बदलकर लौटेगी, इसी बात से भारत के हर कार्यालय में लोग भयाक्रांत हैं। उससे भी बड़ी समस्या यह है कि जब ये मुकदमे झूठे साबित होते हैं तो फर्जी शिकायत करने वाली शातिर महिलाओं पर कोई कार्रवाई नहीं होती। कानून में फर्जी शिकायत करने वालों पर दंड का प्रावधान नहीं होने की कमी के कारण महिलाओं में फर्जी मुकदमे दर्ज कराने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।
बलात्कार व दहेज के झूठे मामलों की बाढ़
बलात्कार एवं यौन-उत्पीडऩ से संबंधित नए कानूनों की आड़ में पिछले एक वर्ष में यौन-उत्पीडऩ और बलात्कार के झूठे मामलों की बाढ़ आ गई है। यह निश्चित ही चिंताजनक है। इस तरह के चलन को रोकना बेहद जरूरी है। दिल्ली में चलती बस में रेप की घटना के बाद ऐसा माहौल बन गया है कि यदि कोई महिला बयान दे देती है कि उसके साथ रेप हुआ है तो उसे ही अंतिम सत्य मान लिया जाता है और कथित आरोपी को गिरफ्तार कर उसके खिलाफ आरोप-पत्र दाखिल कर दिया जाता है। दुष्कर्म के कई मामले ऐसे होते हैं, जिनमें आरोपी को झूठा फंसाया जाता है। इस दौरान आरोपी को पुलिस हिरासत में या जेल जाना पड़ता है और मानसिक, शारीरिक प्रताडऩा के साथ सामाजिक तिरस्कार के दौर से गुजरना पड़ता है। बाद में जब सुनवाई के दौरान उस पर लगे आरोप झूठे साबित होते हैं, तब भी उसके लिए समाज में जीना कष्टकर होता है। अगर किसी शख्स पर रेप का झूठा आरोप लगता है तो यह उसके लिए बेहद दु:ख और शर्मिंदगी वाली बात होती है। इतना हीं नहीं, यह शर्मिंदगी और अपमान बेगुनाह साबित होने के बाद भी उसका पीछा नहीं छोड़ते। सरकार इन तीव्र गति से बढ़ते बलात्कार के झूठे मामलों की रोकथाम के लिए कौन से अहम कदम उठाती है, यह देखना लाजिमी है। अदालत इंसाफ नहीं कर पाएंगी, अगर रेप के झूठे आरोप लगाने वालों को सजा नहीं मिलती।
सिर्फ राजस्थान में ही 46794 मुकदमे झूठे
देश में संगीन व महिला उत्पीडऩ संबंधी अपराध के सबसे ज्यादा झूठे मामले राजस्थान में दर्ज होते हैं। इसका खुलासा हाल ही में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा देश के सभी राज्यों के जारी किए गए गत वर्ष के आपराधिक रिकॉर्ड में सामने आया है। गत वर्ष प्रदेश के 861 थानों में 2 लाख 10 हजार 498 प्रकरण दर्ज हुए हैं। इनमें से 46 हजार 794 मुकदमे पुलिस की जांच में झूठे में पाए गए हैं। यानी दर्ज मुकदमों में से प्रदेश में 22 फीसदी से ज्यादा प्रकरण झूठे दर्ज होते हैं। राजस्थान के बाद तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और बिहार में पुलिस की जांच में 5 से 6 हजार मुकदमे झूठे पाए गए हैं। वर्ष 2012 में केवल मध्यप्रदेश में दहेज प्रताडऩा के सर्वाधिक 3988 केस दर्ज किए गए, जिनमें से सिर्फ 697 में सजा हुई, बाकी मामले झूठे साबित हुए। दहेज के झूठे आरोप में पुरुषों को फंसा देना स्त्रियों के लिए मामूली बात है। अकेले मध्यप्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर में विगत पांच वर्षों में पत्नियों द्वारा दर्ज शिकायतों के बाद 4500 पति ऐसे फरार हुए कि अब तक लापता हैं। दरअसल पत्नियों द्वारा थाने में शिकायत दर्ज करवाने के बाद पतियों पर गिरफ्तारी के अलावा जिन मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है, उनसे बचने के लिए घर से भाग जाने या आत्महत्या के अलावा अन्य कोई विकल्प उन्हें नहीं सूझता।
दहेज कानून: पति और रिश्तेदारों को परेशान करने के लिए..
पिछले कुछ सालों में दहेज विरोधी कानून के नाम पर परेशान करने के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। सच ये है कि अनुच्छेद 498 संज्ञेय और गैरजमानती अपराध है, जिसका इस्तेमाल सुरक्षा की जगह नाराज पत्नियों द्वारा हथियार की तरह किया जा रहा है। इस कानून के तहत पति और उनके रिश्तेदारों की गिरफ्तारी परेशान करने का सबसे सरल तरीका है। कई मामलों में तो पतियों के दादा-दादी और दशकों से विदेश में रह रहीं उनकी बहनों की भी गिरफ्तारी देखी गई है। दो सदस्यीय बेंच ने राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो का हवाला देते हुए लिखा है कि अनुच्छेद 498 ए के तहत 2012 में करीब 2 लाख लोगों की गिरफ्तारी हुई, जो कि 2011 के मुकाबले 9.4 फीसदी ज्यादा है। 2012 में जितनी गिरफ्तारी हुई, उनमें से लगभग एक चौथाई महिलाएं थीं। अनुच्छेद 498 ए में चार्जशीट की दर 93.6 फीसदी है, जबकि सजा की दर 15 फीसदी है। फिलहाल 3 लाख 72 हजार 706 केस की सुनवाई चल रही है और लगभग 3 लाख 17 हजार मुकदमों में आरोपियों की रिहाई की संभावना है। आंकड़ों को देखते हुए लगता है कि इस कानून का इस्तेमाल पति और उनके रिश्तेदारों को परेशान करने के लिए हथियार के तौर पर किया जा रहा है। झूठे दहेज केस की बढ़ती संख्या को देखते हुए हुए सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा है कि सात साल से कम की सजा के मामलों में बेवजह गिरफ्तारी न हो। दहेज केस में पुलिस अधिकारी के पास तुरंत गिरफ्तारी की शक्ति को सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार का बड़ा स्रोत माना। अब दहेज केस में किसी को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस को पहले केस डायरी में वजह दर्ज करना होगी, जिनकी मजिस्ट्रेट समीक्षा करेंगे।